"अगर मैं मजदूर ना होता-तो आज इतना मजबूर ना होता
. ..मजदूर के मन की व्यथा..
"अगर मैं मजदूर ना होता-तो आज इतना मजबूर ना होता"
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वक्त का यह परिंदा रुका है कहां, मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा।
चार पैसे कमाने मैं आया शहर, गांव मेरा मुझे याद आता रहा।।
यह पंक्तियां चरितार्थ होती है वर्तमान समय में लॉकडाउन की विपरीत परिस्थिति में अपने घरों से दूर फंसे मजदूर वर्ग के लिए।
एक मजदूर ने कहा..
"रुका तो रहूं इस लॉकडाउन में अपने घरौदें से बाहर, लेकिन अब इस पापी पेट की आग चैन से सोने नहीं देती।"
हे पंतप्रधान.. हे धर्मध्वजा वाहक.. जब से इस वैश्विक महामारी का काला साया हमारे देश में छाया और आपने जब पहली बार जनता कर्फ्यू का आवाहन किया, यकीन मानिए देश-प्रेम की भावना हमारे सीने में हिलोरे लेने लगी, और संपूर्ण विश्व को भारत की राष्ट्रीय एकता का एहसास कराने में हमने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, अपने हिस्से की पूरी जिम्मेदारी निभाई।
हे भारत कुलभूषण.. जब आपने ताली व थाली बजाने का सामूहिक ऐलान किया, तो हमने पूरे जोशो-खरोश के साथ ताली और थाली की ध्वनि से पूरा वातावरण गुंजायमान कर दिया।
इस बात को लेकर हमें बहुत गुमान है कि, जब आपने दिया,टॉर्च व कैंडल जलाने को कहा, तो इस विपरीत परिस्थिति में भी हमने दीपोत्सव मना दिया।
हमने लॉकडाउन का पूर्ण समर्थन किया और वह सारी बातें मानी जो भी आपने कहा।
पर हे करुणानिधान.. अब हमारा हौसला पस्त हो रहा है, यकीन मानिए अगर बात राष्ट्र के प्रति वफादारी दिखाने की है, तो आपके एक ही आदेश में जान की बाजी लगाने में भी पीछे ना हटेंगे।
लेकिन यह कैसी जंग है जो सिर्फ हम गरीब के ही हिस्से आई है "गुमनामी भरी"।
डॉक्टर,पुलिस,सफाई कर्मचारी यह सब कोरोना की जंग में डटकर मुकाबला कर रहे हैं, और पूरा देश इनके इस त्याग की पराकाष्ठा के आगे नतमस्तक है, और होना भी चाहिए।
लेकिन इस दौरान क्या हमारी सुध किसी को नहीं?
मकान मालिक ने घर से निकाला तो रोड पर आ गए, घर पहुंचने का कोई साधन नहीं तो हजारों मील की अंतहीन यात्रा बेबस होकर पैदल ही शुरू कर दी। ना खाना.. ना पीना.. ना छत.. बस चलता ही गया.. और जगह-जगह पुलिस ने पीटा भी।
हमारे कुछ साथी एक ही कमरे में 40-50 लोग एक साथ रहने को मजबूर और वह भी बिना दाना पानी के, और कुछ का तो कमरा ही उनके लिए कालकोठरी बन गया, यह सितम पूरे देश के हम गरीब मजदूरों ने झेला।
लेकिन शायद हमारे इस त्याग से देश का भला हो, इसलिए चुपचाप बिना कुछ कहे तकलीफ सहता रहा।
लेकिन याद आया कि जब देश के बाहर कुछ अमीर लोग फंसे थे तो आपने दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों से संपर्क कर, विशेष वायुयान का प्रबंध कर उन्हें वापस बुलाया और चारों ओर आपके साहसिक कार्य की तारीफ भी हुई, कि आपने अपने देश वासियों की मदद की। हमें लगा जब विदेश से लोगों को हवाई यात्रा करके वापस आप ले आए हैं, तो आखिर हम मजदूर लोग अपने ही देश में हैं, हमें भी आप हमारे घर तक पहुंचा ही देंगे, इसी दिवास्वप्न में मंत्रमुग्ध हो सब्र का दामन थामे आपकी मदद का इंतजार करते रहे।
फिर खबर आई कि आपने कुछ अमीरों के बच्चों को जो पढ़ने बाहर गए थे और वहां हॉस्टलों में फंसे थे उन्हें उनके घर भेजने के लिए आपने बसें भेजी, यह बहुत ही अच्छा काम किया आपने जो उन बच्चों को उनके घर पहुंचा दिया, क्योंकि घर से दूर बिना जीवन यापन के साधन के जीने का दर्द हम मजदूरों से बेहतर कौन समझेगा?
पर हे विश्वशिरोमणि.. पापी पेट की आग अब चैन से सोने नहीं देती.. हमारी तड़प को समझिए।
बेवशी वा बेचैनी भी अब हमें मुंह चिढा़ने लगी है।
क्या गरीब होना ही हमारा अपराध है?
पता है राशन तो कब का खत्म हो चुका था, लेकिन भला हो कुछ समाजसेवा व्रत धारियों का, जो अगर ऐन वक्त पर डूबते को तिनके का सहारा न दिये होते तो अब तक तो कब के प्राण पखेरू उड़के काल कवलित हो लिए होते, और हमारी गुमनाम मौत का कोई गवाह भी ना होता।
लेकिन समझ में यह नहीं आ रहा कि एक तरफ तो बहुत से दानदाताओं ने दिल खोलकर दान किया और सरकार भी लगातार कह रही हैं कि किसी भी चीज की कोई कमी नहीं.. और इसी लॉकडाउन के बीच वी.आई.पी. लोगों और कुछ कृपापात्रों का आवागमन भी जारी है।
तो क्या यह सारे नियम.. कायदे.. कानून.. मुझ बेबस के लिए ही है?
क्या यह बंदिशे.. यह जंजीरे.. यह बेड़िया.. यह लाठियां.. सिर्फ मुझ गरीब के लिए ही है?
अब मत खेलिए हमारे जज्बातों से..
कोई घर वापसी की झूठी आस दिला कर हमें रेलवे स्टेशन बुलाता है, और हम भोले गांव के गंवार लोग जब पहुंचते हैं, तो हम पर हमारे ही देश में बर्बरता पूर्वक लाठियां बरसाई जाती हैं।
आखिर हम पर यह अत्याचार क्यों?
आखिर हमने क्या गुनाह किया है?
सिर्फ यही ना कि हम अपने घर जाना चाहते हैं, अपने परिवार के बीच तो क्या यह बहुत बड़ा अपराध है?
मानता हूं कि महामारी भी बहुत बड़ी है, लेकिन जब वी.आई.पी. लोगों का आवागमन जारी है, तो हम लोग क्यों नहीं?
सवाल तो उठता है या तो सबके लिए बराबर नियम कायदे कानून हो या फिर..??
खैर हमारा भी परिवार है साहेब.. हमें उनकी व उन्हें भी हमारी फिकर होती है। अब क्या करें समझ ही नहीं आता, बस हमारे अपनों की बेबस निगाहें आंखों में आंसू लिए दिन-रात यही पुकारती है कि..
घर आजा परदेसी तुझको देश बुलाए रे..
आज अपने ही देश में पराए हो चुके हैं हम, आज हमारे दर्द-तकलीफ का अहसास किसी को नहीं.. हमारी अंतरात्मा झकझोर कर आत्म प्रताड़ना से हमसे यही कहती है कि,
"अगर तू मजदूर ना होता-तो आज इतना मजबूर ना होता"
अंत में पंकज उदास जी की चंद लाइने हमारे अपने घरवालों की दिल की वेदना कहती है कि..
देश पराया छोड़ के आजा..
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा..
तेरी उमर है बहुत ही छोटी..
आजा अपने घर में भी है रोटी..
देवेंन्द्र द्विवेदी रीवा
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